धरती की पुकार: क्या तुम मुझे सुन सकते हो?

“मैं मिट्टी हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ। मैं तुम्हारा घर हूँ — लेकिन आज मैं थकी हूँ, घायल हूँ, और शायद आख़िरी बार पुकार रही हूँ। क्या तुम सुन सकते हो?” कभी जिस धरती ने तुम्हें माँ की तरह संभाला, आज वही धरती कराह रही है। पेड़ जो छाया देते थे, अब गिनती के रह गए हैं। नदियाँ जो जीवन देती थीं, अब ज़हर बन चुकी हैं। पक्षी जो गीत गाते थे, अब कहीं गुम हो गए हैं। फिर भी हम दौड़ रहे हैं — और उस दौड़ में भूल गए हैं कि हम जा कहाँ रहे हैं।

“धरती की पुकार” केवल पर्यावरण की बात नहीं है, यह हमारी चेतना की पुकार है। यह हमें याद दिलाती है कि हम उपभोक्ता नहीं, संरक्षक (caretaker) हैं। यह भागती हुई दुनिया में एक ठहराव है, जहाँ हम फिर से जुड़ें — प्रकृति से, जीवन से, और स्वयं से।

तो आओ, एक पल ठहरें — चलो उस पेड़ के नीचे बैठें जिसे हमने कभी लगाया था — अब वो सूख चुका है। चलो उस नदी की ओर चलें — जहाँ बचपन में कागज़ की नावें छोड़ी थीं, अब वहाँ झाग है, बदबू है। चलो उस हवा को महसूस करें — जो अब सिर्फ़ साँस लेने का माध्यम नहीं, एक ख़तरा बन चुकी है।

क्या यही वह विकास है, जिसके लिए हमने सब कुछ दाँव पर लगा दिया? बड़े घर, तेज़ गाड़ियाँ, अनगिनत चीज़ें — लेकिन वो शांति, वो ताजगी, वो अपनापन अब कहाँ है?

धरती हमें बस खाना, पानी और हवा ही नहीं देती — वो हमें संवेदना, स्थिरता और सौंदर्य भी देती है। लेकिन जब हम पेड़ों को काटते हैं, जानवरों को सताते हैं, नदियों को गंदा करते हैं — तो असल में हम अपने ही भीतर की कोमलता को कुचलते हैं।

अब समय है — सुनने का, समझने का, और कुछ करने का। क्योंकि अगर हमने अब भी न सुना तो शायद अगली पुकार… धरती की नहीं, हमारी होगी — और तब शायद कोई सुनने वाला नहीं होगा।

प्रकृति का शोषण – अहंकार और मोह का परिणाम

“धरती को हमने नहीं घायल किया, हमने अपने भीतर की करुणा को मार डाला है। और वही मृत मन अब सब कुछ नष्ट कर रहा है।” आज जो पेड़ कट रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, जीव विलुप्त हो रहे हैं — ये सब एक बाहरी संकट का संकेत नहीं, बल्कि हमारे भीतर के अंधकार का परिणाम है। धरती का दुख असल में मनुष्य के भीतर के दोषों का प्रतिबिंब है।

अहंकार – मैं ही मालिक हूँ!

मनुष्य यह भूल चुका है कि वह प्रकृति का हिस्सा है। अब वह खुद को प्रकृति का स्वामी समझ बैठा है। पहाड़ों को तोड़ना, नदियों को मोड़ना, जंगलों को खत्म करना — उसे लगता है कि यह उसका “अधिकार” है।

आचार्य प्रशांत कहते हैं:
जब तक मनुष्य अपने को ‘कर्त्ता’ मानता रहेगा, तब तक प्रकृति केवल ‘साधन’ बनी रहेगी — और साधन का अंत तय है।” यही अहंकार है। यह वह भ्रम है जिसमें मनुष्य यह मान लेता है कि जो दिखाई देता है, वह उसके उपयोग के लिए है।


मोह – और चाहिए, अभी चाहिए

अहंकार के साथ ही आता है मोह और उपभोग की भूख। हम हर चीज़ को बस “उपयोग की वस्तु” मान चुके हैं — प्लास्टिक में लिपटे फल, सजावट के लिए फूल, फैशन के लिए चमड़ा, स्वाद के लिए जानवर।

हमें अपने लिए सबसे अच्छा चाहिए, लेकिन प्रकृति का मूल्य चुकाने को हम तैयार नहीं हैं। हर चीज़ चाहिए — लेकिन त्याग नहीं चाहिए। विकास चाहिए — लेकिन विनम्रता नहीं चाहिए

“मोह भीतर होगा, तो बाहर का उपभोग कभी रुकेगा नहीं। और उपभोग अनिवार्यतः शोषण की ओर जाता है।”
आचार्य प्रशांत


तो फिर समाधान क्या है?

जब तक हम “बाहर” को बदलने की कोशिश करते रहेंगे, कुछ भी स्थायी रूप से नहीं बदलेगा।
हमें बदलना है अपना मन — वो मन जो संवेदनशील हो, सीमित में संतुष्ट हो, और जो जीवों से प्रेम करता हो। “धरती का सबसे बड़ा सेवक वही हो सकता है, जो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखता है।” हम जितना कम चाहेंगे, उतना ही अधिक धरती को राहत मिलेगी। यह कोई बड़ा आंदोलन नहीं है — यह जीवन की शैली है।


एक नया दृष्टिकोण

अगर हम सच में धरती के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो पेड़ लगाने से पहले, अपने भीतर की कठोरता को काटना होगा।
पानी बचाने से पहले, अपने विचारों को शुद्ध करना होगा। पशु बचाने से पहले, अपने स्वाद के मोह को त्यागना होगा। यही है सच्ची सेवा। और यही है प्रकृति के साथ पुनः जुड़ने की साधना।


अंत में

“प्रकृति का शोषण” कोई बाहरी युद्ध नहीं, यह हमारे भीतर के दोषों का युद्ध है — जिसे जीतने के लिए हमें अपने ही मन का सामना करना होगा। जैसे-जैसे हम भीतर से शुद्ध और सरल होंगे, हमारा जीवन ही धरती के लिए वरदान बन जाएगा।

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