चमड़ा, ऊन, सर्कस, चिड़ियाघर और पशु शोषण की मौन चीखें
“जब इंसान की इच्छाएँ हिंसक हो जाती हैं, तब सबसे पहले उसकी करुणा मरती है — और उसके बाद शोषण शुरू होता है।” हमारी दुनिया में रोज़ कुछ ऐसा घटता है, जिसे हमने ‘सामान्य’ कहकर अनदेखा करना सीख लिया है।
चमड़े का बैग, ऊन की स्वेटर, सर्कस में करतब दिखाता हाथी, चिड़ियाघर में ऊंघता शेर —
इन सबके पीछे जो वास्तविकता है, वह इतनी दर्दनाक है कि उसे जानकर हमारी आत्मा काँप जाए।
पर क्या हम जानना चाहते हैं?
नहीं। क्योंकि अगर जान लिया, तो फिर उस मासूम की चीख हमारे सुख में खलल डालेगी।
और हम तो अब सुख से ज़्यादा “आदतों के गुलाम” हो गए हैं।
🩸 चमड़ा — ज़िंदा खाल की सच्चाई – क्या आपने कभी सोचा कि चमड़ा आता कहाँ से है? गायों को भूखा रखकर, पीट-पीट कर, बेतरतीब ट्रकों में भरकर मारने के लिए ले जाया जाता है — और फिर उनकी खाल को “ब्रांडेड लग्ज़री” के नाम पर बेच दिया जाता है। हम नहीं जानते, पर पहनते वही हैं।
“आचार्य प्रशांत जी के सान्निध्य में रहते हुए मैंने जो जाना है, वह कुछ यूँ है:”
“जिसे तुमने पूजने की मूर्ति बना दिया, उसी की खाल अब फैशन बन गई है। यही है आधुनिकता की क्रूर विडंबना।”
ऊन – गरम कपड़ों की ठंडी सच्चाई

(व्यक्तिगत अनुभव और सत्य के साथ) हममें से कई लोग ऊन (wool) से बने स्वेटर, मफलर, टोपी या कंबल बरसों से पहनते आ रहे हैं। ये गरम होते हैं, मुलायम लगते हैं और हमें ठंड से बचाते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इस ऊन की कीमत कौन चुकाता है?
ऊन कैसे बनती है?
ऊन भेड़ों के शरीर से आती है। हर साल उनकी खाल से ऊन निकाली जाती है। इसे “शीरिंग” (shearing) कहते हैं। टीवी विज्ञापनों या किताबों में अक्सर दिखाया जाता है कि कोई किसान प्यार से भेड़ को पकड़ता है, कैंची से ऊन काटता है, और भेड़ आराम से खड़ी रहती है — पर ये सच्चाई नहीं है।
🩸 असलियत क्या है?
आज के ज़माने में ऊन मशीनों से निकाली जाती है, और ये काम बेहद तेज़ी और मुनाफे के लिए होता है। इससे भेड़ों को बहुत दर्द होता है:
- मशीन से ऊन काटते वक्त उनकी त्वचा तक कट जाती है। खून बहता है, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है।
- गर्भवती भेड़ों, बूढ़ी और बीमार भेड़ों को भी नहीं छोड़ा जाता। सभी को एक ही तरह से खींचा और उल्टा-पलटा जाता है।
- कई बार, ऊन निकालने के बाद उनकी पूंछ काट दी जाती है, और कुछ देशों में तो उनके प्राइवेट हिस्सों की त्वचा तक बिना बेहोश किए काट दी जाती है, ताकि वो साफ दिखें।
तथ्य और आंकड़े:
- PETA और अन्य संगठनों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत सहित कई देशों में भेड़ फार्मों का खुलासा किया है।
- कई फार्मों में देखा गया कि अगर भेड़ कम ऊन देने लगे, तो उन्हें मार दिया जाता है, और उनका मांस बेच दिया जाता है।
मेरा अनुभव:
मैं भी पहले ऊनी कपड़े पहनती थी।
मुझे भी यही बताया गया था कि भेड़ों को गर्मी लगती है, इसलिए उनकी ऊन निकालना ज़रूरी होता है — जैसे मानो हम उनकी मदद ही कर रहे हों। लेकिन जब असलियत जानने को मिली — कि ये “मदद” नहीं, बल्कि एक दर्दनाक व्यापार है — तो मैं भीतर से हिल गई। अब मैंने खुद अपने परिवार में भी यह बात साझा की है, और धीरे-धीरे हम भी ऊन के विकल्पों की ओर बढ़ रहे हैं।
क्या ऊन लेना ज़रूरी है?
नहीं। ऊन के बिना भी अब कई विकल्प उपलब्ध हैं जो cruelty-free (बिना हिंसा के बने) होते हैं, जैसे:
- Recycled wool (पुनर्नवीनीकरण ऊन)
- Cotton fleece
- Hemp fabric
- Synthetic warmers (जैसे fleece, जो जानवरों से नहीं बनते)
- Plant-based fibers (जैसे bamboo, soybean fiber)
“पर हम तो अब तक ऊन पहनते आ रहे थे…”
किसी चीज़ को तब तक इस्तेमाल करना जब तक हमें सच्चाई न पता हो — वो गलती नहीं है।
लेकिन अब जब सच्चाई सामने है, तो हमें यह तय करना है कि हम करुणा और जागरूकता के रास्ते पर चलना चाहते हैं या बस आदत के।
करुणा से भरा जीवन, असहायों के लिए राहत बनता है।
एक ऊनी स्वेटर शायद गर्मी दे —
पर अगर उसकी कीमत किसी मासूम के खून और डर से चुकाई गई हो,
तो क्या वो गर्मी वाकई सुकून देती है? “एक गर्म स्वेटर के पीछे — कई मासूम सिसकियाँ छुपी होती हैं।”
चिड़ियाघर — पिंजरा, पाठशाला नहीं हो सकता
(एक मार्मिक सच्चाई जिसे हम अब तक “मनोरंजन” समझते रहे)
बच्चों को हम चिड़ियाघर ले जाते हैं और कहते हैं — “जानवर देखो।” पर वहाँ जानवर नहीं, दासता में जीते हुए जीव होते हैं।
चिड़ियाघर: एक नकली दुनिया में बंद असली जीवन
चिड़ियाघरों को “शैक्षिक” और “संरक्षण” के नाम पर स्थापित किया गया, लेकिन असलियत में यह मनोरंजन और मुनाफे का केंद्र बन गए हैं।
सोचिए —
- एक शेर, जो जंगल में 100 वर्ग किलोमीटर तक घूमता है, उसे 1000 वर्गमीटर के पिंजरे में कैद कर दिया जाता है।
- एक हाथी, जो पूरे दिन अपने झुंड के साथ चलता है, उसे अकेलेपन और सीमाओं में सड़ते हुए देखा जाता है।
- भालू, बाघ, बंदर — सब के सब बेगुनाह होकर भी जेल की सज़ा भुगतते हैं।
कैसे लाया जाता है जानवरों को चिड़ियाघर में?
- अधिकतर जानवरों को जंगल से छीनकर या पालन-पोषण के नाम पर कैद में पैदा किया जाता है।
- उन्हें छोटे पिंजरों में बंद कर, जीवन भर घुटन भरी कैद दी जाती है।
- कई जानवरों में पेसिंग (बार-बार इधर-उधर चलना), सिर हिलाना, खुद को नोचना जैसी मानसिक बीमारियाँ देखने को मिलती हैं — यह “ज़ूकोसिस” नाम की मानसिक बीमारी होती है, जो कैद के कारण होती है।
शिक्षा या भ्रम?
हम बच्चों को कहते हैं — “जानवरों को देखो”, पर असल में जो उन्हें दिखाया जाता है, वह उन जानवरों का असली जीवन नहीं, बल्कि उनका टूटा हुआ, बंद, कुचला हुआ अस्तित्व होता है। हम बच्चों को यह नहीं सिखा रहे कि जानवर कैसे हैं,
हम उन्हें सिखा रहे हैं कि किसी की आज़ादी छीनना जायज़ है।
भारत और विश्व में स्थिति
- भारत में कई चिड़ियाघर अत्यंत दयनीय हालात में हैं।
2020 में CZA (Central Zoo Authority) की एक रिपोर्ट के अनुसार 130 में से 30 से अधिक ज़ू को बंद करने की सिफारिश की गई थी। - जानवरों के संरक्षण के नाम पर उन्हें प्रजनन केंद्र बनाया जाता है, लेकिन अधिकतर जन्मे शावक कभी जंगल नहीं लौट पाते।
- अमेरिका और यूरोप में भी कई देशों में चिड़ियाघर के विरुद्ध आवाज़ें तेज़ हुई हैं। फ्रांस, इंग्लैंड, बेल्जियम जैसे देशों ने कुछ जानवरों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगाए हैं।
व्यक्तिगत अनुभव
मैं भी चिड़ियाघर जा चुकी हूँ।
बचपन में जब माँ-बाप लेकर गए, तो सब “रोमांचक” लगा।
लेकिन अब समझ आता है कि जिन पिंजरों में मैंने शेर को देखा —
वहाँ उसका रॉयल अंदाज़ नहीं था,
वहाँ सिर्फ थकावट, ऊब, और बंद आँखों में छिपा गुस्सा था। जब यह सच्चाई जानी, तो मैंने अपने परिवार में इस पर चर्चा की —
और तय किया कि अब कोई चिड़ियाघर नहीं।
जानवरों को देखने की इच्छा हो, तो डॉक्युमेंट्री देखें, जंगल सफारी पर जाएँ,
पर किसी की कैद को मनोरंजन मत बनाइए।
आचार्य जी कहते हैं:
“जानवरों को देखकर खुश होना स्वाभाविक है, लेकिन उस खुशी की कीमत किसी की स्वतंत्रता हो — तो वह खुशी नहीं, हिंसा है।”
क्या करें?
- बच्चों को चिड़ियाघर की जगह प्राकृतिक डॉक्युमेंट्री, rescue centers दिखाएं।
- Social Media पर जागरूकता फैलाएं — बताएं कि असली शिक्षा आज़ादी सिखाती है, कैद नहीं।
- सरकार से मांग करें कि जिन ज़ू में जानवरों की दशा खराब है, उन्हें बंद किया जाए।
- जानवरों से प्रेम करना है, तो उनके जीवन की आज़ादी का समर्थन कीजिए। “शेर को पिंजरे में देखकर तालियाँ बजाना — हमारी हार है, उसकी नहीं।” “पिंजरा कभी पाठशाला नहीं हो सकता।”
भगवद्गीता का संदेश – कामनाओं में अंधे व्यापारियों के लिए चेतावनी
“काममार्ताः कृतज्ञानाः प्रहरन्त्यत्यकारणम्।
शठा निष्ठाः अचिन्त्याश्च दुष्कृतः कृतनिश्चयाः॥”
(श्रीमद्भगवद्गीता 16.10)
भावार्थ:
“वासनाओं में लिप्त, ज्ञानहीन ये लोग, नितांत स्वार्थ के लिए निर्दोषों को कष्ट देते हैं।
वे ठगे हुए और कठोर निश्चय वाले पापियों के समान हैं, जिनमें करुणा मर चुकी होती है।”
क्या यह आज के उस उद्योगी समाज पर लागू नहीं होता, जो लाभ के लिए पशु-पक्षियों का जीवन छीन लेता है?
अब क्या करें?
- चमड़ा, ऊन, पशु-शोषण से जुड़ी वस्तुओं से इनकार करें।
- पिंजरे नहीं, प्रकृति दिखाएँ।
- अपने बच्चों को सिखाएँ — दया, साहस है।
- जानवरों को ‘मनोरंजन’ की वस्तु नहीं, जीव समझें।
- और सबसे ज़रूरी —
अपने भीतर की संवेदना को फिर से जीवित करें।
आपका एक निर्णय — कई जीवनों की राहत
इस लेख को पढ़ना एक शुरुआत है।
यदि आप अब भी इस क्रूरता से आँखें मूँद लें, तो अगला शिकार आपका विवेक होगा।
धरती आज पुकार रही है —
क्या आप उसकी आवाज़ बनेंगे?
जानवरों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया और उनके अधिकारों के बारे में यह विचार वाकई गहरा है। क्या हम सच में उनकी स्वतंत्रता को छीनकर खुश हो सकते हैं? यह सवाल हमें अपने नैतिक मूल्यों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करता है। क्या हमारी खुशी किसी और के दुख पर टिकी होनी चाहिए? यह बात न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि मानवता के लिए भी एक बड़ा सबक है। क्या हमें अपने उद्योग और लाभ के लिए इतना अंधा हो जाना चाहिए? यह सोचने का समय है कि क्या हम सही रास्ते पर हैं। क्या आपको नहीं लगता कि हमें अपने कर्मों पर पुनर्विचार करना चाहिए?
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